बुधवार, 23 सितंबर 2009

आख़िर कब तक ?

आओ हम प्रणाम करे
जनता के कवि को
जो सूखे दरख्त पर तरस खाकर
दो-चार अल्फाज़ कह देता है
रच देता है कविता
आवाम की ,हमारी- तुम्हारी
चुपचाप रहो
हमारे इस महान कवि के
राष्ट्रीय ज्ञानपीठ पुरस्कार पा लेने तक
इनको
इन कथित
सफ़ेद कालर बुद्धिजीवियों को
रचने दो कविता
अहसासों की मछलियों को
पकड़-पकड़ रखने दो
लेकिन यह मत भूलो कि
एक छोटी मछली
मिलती है घंटो कांटे डाल
चिलचिलाती धूप में बैठे किसी मछेरे को ,
ऐसे ही कमाए किसी एहसास को
तलकर, भून कर ,खाकर देखो
तुम्हें तुम्हारी मेहनत का असली स्वाद मिलेगा
बालों के गुलाब द्बारा
कहार के कंधो के घट्टो से
पूछे गए प्रश्न सभी
बेमानी है कि जब ये
चीथडो में लपेट कर गरीबी का एहसास
काफी हाउस के प्यालो में सजाकर
इस महान देश को पेश करते हैं
तब मुझे याद आता है
ढेर सारे भाषणों का देश
जिस पर दूध -भात खाते कवि
कवितायें करते हैं -
सूखी रोटी की
नंगी बेटी की
रूसी -अमरीकी मदिरा में लेखनी डुबो कर ,
और बात करते हैं सर्वहारा क्रांति की
मांसल उभारों पर टिकी हुई -
एक महान कविता
ठण्ड से सिकुड़ी मुडी-तुड़ी ठठरी की
क्या सच ही हम सुनेगें इन्हें ?
आख़िर कब तक?

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