गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

ओ गौरैया! ओ बया!

तुम सब कहां हो ?
अब पिछ्वाड़े तुम घोसले नहीं लगातीं
क्यों गईं रूठ सब के सब ?
मुझे याद है बचपन
तुम्हारी वो नीड़ दोमन्जिली
चीं-चीं करते मां को बुलाते- अकुलाते बच्चे
पन्ख आते ही अनन्त में उड़ने को व्याकुल
कौन सिखाता था तुम्हें
बुनना ऐसे अदभुत आशियाने
हर मां ऐसे ही करती है शायद
देखा नहीं स्वेटर बुनते जाड़े की धूप में
आंगन में बैठी शिशु जनने वाली किसी मां को
उर्जावान शिक्षिका सी सिखला जाती थी सब कुछ
नन्ही सी फुदक-फुदक कर,
समेटे मात्रित्व की गरिमा
सजोये मां की ममता
कला की महत्ता, बुनकर की कुशलता
बहुत कुछ-सब कुछ
बस डरता हूं कि तुम जैसे खो गईं
तुम्हारी तरह नारी में रची बसी,
ममता-दुलार-प्यार जैसी भावनायें
बदलते परिवेश में मां की संवेदनायें
सब खो न जाय तुम्हारी तरह....

शनिवार, 13 मार्च 2010

बौने होते शब्द

अन्तहीन शब्दों की कतार के पीछे
दुबक कर-छिपकर मैं बचा हूं
बौने होते शब्द
अब और बौने हो गये
बौनेपन के क्रमिक विकास से
शब्दों के निरन्तर ह्रास से
मैं डर गया हूं

कल सुबह
मैं शब्दों के ऊपर शब्द लगाकर
जोड़-जोड़ ऊँचा बनाकर
छिपने लायक सजाकर
रखूंगा
क्या अर्थहीन स्वयं को
इनके पीछे छिपा पाऊँगा ?
इन्हीं सब उधेड़ बुन में
शब्दों और मुहावरों के ढेर से
एक मधुर-शीतल मौलिक शब्द
ढ़ूढ़कर ,छाँट्कर , जाँचकर
तुम्हें देना चाहता था
किन्तु !
प्रश्न चिह्न की तरह धुन्ध
मुझे और मेरे शहतूत के पेड़ों को
घेर लेते हैं
मैंने बहुत चाहा
सरस पके इन मीठे फलों जैसा
कुछ शब्द लाकर
तुम्हें भेंट दूँ,
परन्तु !
समय की ऊँचाइयों से गिरकर
बड़े-बड़े शैल खण्डों से शब्द
आज मेरी गली मे खेलते बच्चों की
मिट्टी की छोटी-छोटी गोलियो सा
मेरे मन के द्वार पर
लुढ़क-ढुलक रहे हैं
मैं इनके लघु चिकने रूप पर
आँखें नम करता रहता हूँ
और ये बेहया शब्द
अपनी लाश अपने क्न्धों पर रखे
फूले नहीं समाते....