गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

ओ गौरैया! ओ बया!

तुम सब कहां हो ?
अब पिछ्वाड़े तुम घोसले नहीं लगातीं
क्यों गईं रूठ सब के सब ?
मुझे याद है बचपन
तुम्हारी वो नीड़ दोमन्जिली
चीं-चीं करते मां को बुलाते- अकुलाते बच्चे
पन्ख आते ही अनन्त में उड़ने को व्याकुल
कौन सिखाता था तुम्हें
बुनना ऐसे अदभुत आशियाने
हर मां ऐसे ही करती है शायद
देखा नहीं स्वेटर बुनते जाड़े की धूप में
आंगन में बैठी शिशु जनने वाली किसी मां को
उर्जावान शिक्षिका सी सिखला जाती थी सब कुछ
नन्ही सी फुदक-फुदक कर,
समेटे मात्रित्व की गरिमा
सजोये मां की ममता
कला की महत्ता, बुनकर की कुशलता
बहुत कुछ-सब कुछ
बस डरता हूं कि तुम जैसे खो गईं
तुम्हारी तरह नारी में रची बसी,
ममता-दुलार-प्यार जैसी भावनायें
बदलते परिवेश में मां की संवेदनायें
सब खो न जाय तुम्हारी तरह....