बुधवार, 3 अगस्त 2011

तलाश

अपनी गरीब मां की फटी धोती में लगे पैबन्द जैसा
समाज के चेहरे पर फूहड़ और बदसूरत मैं,
अपने बूढ़े बाप के बुझ चुके चिलम की राख जैसे
मेरे अरमान ,
फिर लहकने की चाह में
न जाने कितने सुबहों के सूरज से आग मांगे हैं,
ठंड से सिकुड़े मेरे कुत्तों के जिस्म जैसे मेरे ही ख्वाब
जले कागज से सिकुड़ गये हैं,
मेरे खेतों की मेड़ जैसे सामाजिक मूल्य
रोज़-रोज़ संकरे किये जा रहे हैं,
मेरे कैक्टस के कांटों जैसे
समाज के नुकीले-जहरीले दांत
काट खाने को तैयार,
गन्धहीन कलमी गुलाब से खूबसूरत आदर्श,
एक ही वायु के झोके से बिखरने को तैयार
अब तो उम्मीद के दामन में,
कोई शुभ्र कली खिलकर फूल नहीं बनती,
अब कोई अर्थवती आशा,
शब्दों के बाज़ार नहीं लगाती
और मैं,
युगों से एक ही शब्द की तलाश में
बेसुध भटक रहा हूं ,
जिस शब्द को किसी सुघर बाला ने
मेरे लिए बनाये थे
सपनों से जोड़े थे
प्रेम मणियों से सजाये थे
रंगे थे सपनीली आंखों के बहुरंगी रंगों से
वही एक शब्द
सिर्फ एक ही शब्द
पा न सका क्यूं कर ?